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शची॑वतस्ते पुरुशाक॒ शाका॒ गवा॑मिव स्रु॒तयः॑ सं॒चर॑णीः। व॒त्सानां॒ न त॒न्तय॑स्त इन्द्र॒ दाम॑न्वन्तो अदा॒मानः॑ सुदामन् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śacīvatas te puruśāka śākā gavām iva srutayaḥ saṁcaraṇīḥ | vatsānāṁ na tantayas ta indra dāmanvanto adāmānaḥ sudāman ||

पद पाठ

शची॑ऽवतः। ते॒। पु॒रु॒ऽशा॒क॒। शाकाः॑। गवा॑म्ऽइव। स्रु॒तयः॑। स॒म्ऽचर॑णीः। व॒त्साना॑म्। न। त॒न्तयः॑। ते॒। इ॒न्द्र॒। दाम॑न्ऽवन्तः। अ॒दा॒मानः॑। सु॒ऽदा॒म॒न् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:24» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा और प्रजा को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरुशाक) बहुत सामर्थ्यवान् (इन्द्र) दुःख के नाश करनेवाले ! (शचीवतः) बुद्धि और प्रजा से युक्त (ते) आपकी (गवामिव, स्रुतयः) गौओं की गतियों के सदृश (सञ्चरणीः) अच्छे प्रकार चलनेवाली भूमियाँ (शाकाः) और सामर्थ्य वाली (वत्सानाम्) बछड़ों की (तन्तयः) विस्तृत पङ्क्तियों के (न) सदृश (ते) आपकी प्रजा हैं। हे (सुदामन्) अच्छे नियमों में बँधे हुए ! जो (दामन्वन्तः) बहुत बन्धनोंवाले होवें वे आप से (अदामानः) बन्धनरहित करने योग्य हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। वे ही राजाजन प्रशंसित प्रतापवाले होते हैं, जो अन्याय और पीड़ा आदि के बन्धन से प्रजाओं को छुड़ा कर धर्ममार्ग में चलाते हैं और जैसे बछड़ों की बढ़ानेवाली गौ होती हैं, वैसे ही प्रजा के बढ़ानेवाले राजपुरुष हों ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राज्ञा प्रजाभिश्च कथं वर्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे पुरुशाकेन्द्र ! शचीवतस्ते गवामिव स्रुतयः सञ्चरणीः शाका वत्सानां तन्तयो न ते प्रजाः सन्ति। हे सुदामन् ! ये दामन्वन्तः स्युस्तेऽदामानस्त्वया कार्याः ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शचीवतः) प्रज्ञाप्रजायुक्तस्य (ते) तव (पुरुशाक) बहुशक्त (शाकाः) शक्तिमत्यः (गवामिव) (स्रुतयः) स्रुवन्त्यः (सञ्चरणीः) याः सम्यक् चरन्ति ता भूमयः (वत्सानाम्) (न) इव (तन्तयः) विस्तीर्णाः (ते) तव (इन्द्र) दुःखविदारक (दामन्वन्तः) बहुबन्धनाः (अदामानः) निर्बन्धनाः (सुदामन्) सुनियमबद्ध ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। त एव राजानः प्रशंसितप्रभावा भवन्ति येऽन्यायपीडादिबन्धनात् प्रजा विमोच्य धर्मपथे प्रचालयन्ति यथा वत्सानां वर्धिका गावो भवन्ति तथैव प्रजानां वर्धका राजपुरुषाः स्युः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे अन्याय व त्रासातून प्रजेची मुक्तता करतात व धर्म मार्गाने चालवितात त्याच राजांची प्रशंसा होते व जसे गाई वासरांना वाढवितात तसेच प्रजेला वाढविणारे राजपुरुष असावेत. ॥ ४ ॥